History

ऐतिहासिक पृष्ठभूमिः

जम्बूद्वीप के प्रथम शासक महासम्मत की अनेक पीढ़ियों के बाद साकेत में राजा सुजात इक्ष्वाकु हुए। सुजात इक्ष्वाकु की प्रथम महारानी पद्महिषी से उन्हें पाँच पुत्र तथा पाँच पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। महारानी की अकस्मात् मृत्यु के बाद राजा ने एक अत्यन्त सुन्दर दासी को अपनी रानी बना लिया। जिसने महारानी के दसों पुत्र-पुत्रियों को साकेत से निष्कासित करवा दिया ताकि उससे उत्पन्न संतान को राजा सुजात इक्ष्वाकु के बाद साकेत का राज सिंहासन प्राप्त हो सके। राजपुत्रों तथा पुत्रियों के साथ प्रजा के कुछ लोग भी अपने साज-सामान सहित चले गये। इन्होंने कपिल मुनि के आश्रम से कुछ दूर शाकोट वन को काटकर कपिलवस्तु का निर्माण कर लिया। शाकोट वन तथा अपने विशुद्ध क्षत्रिय रक्त को बनाए रखने के कारण इन्हें शाक्य कहा गया है। इन्होंने शाक्य गणराज्य की स्थापना की। दो-तीन पीढ़ी के बाद शाक्यों की प्रिया नाम की कन्या को कुष्ठ रोग हो गया। रोहिणी नदी के पूर्व में स्थित कोलवन में रहने से कोलवृक्ष के पत्ते व फल का सेवन करने तथा वहाँ की जलवायु से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता था। अतः कपिलवस्तु के शाक्यों ने अपनी कुष्ठ रोग से पीड़ित कन्या को कोलवन की एक सुरक्षित गुफा में छोड़ दिया। इधर काशी के नाग राजा राम को भी कुष्ठ रोग हो गया था। अतः वह भी कोलवन में इसी आशय से आकर रहने लगा। समय पाकर वहाँ की जलवायु तथा कोलवृक्षों के प्रभाव से वे दोनों कुष्ठ रोग से मुक्त होकर स्वस्थ हो गये। काशी के नाग राजा राम ने शाक्य कन्या प्रिया को एक व्याघ्र से बचाया। दोनों ने एक-दूसरे से परिचय प्राप्त किया और विवाह बंधन में बँध गये। इन दोनों से जो पुत्र पैदा हुए उनके बड़े होने पर उनकी माता ने उन्हें कपिलवस्तु भिजवा दिया। राजा राम भी नाग वंश का विशुद्ध क्षत्रिय सूर्यवंश का राजा था। अतः उन पुत्रों को पाकर कपिलवस्तु के शाक्य बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ उनका कपिलवस्तु में विधिवत स्वागत किया और उन्हें अपने विशुद्ध क्षत्रिय रक्त के होने के कारण शाक्य नाम से ही सम्बोधित किया। उन्होंने उनमें से कुछ को शाक्य गणराज्य की सीमा में ही रोहिणी नदी के पश्चिमी तट पर जंगल साफ कर बसा दिया। जिससे देवदह नगर बना। बाकी बचे राजपुत्रों को रोहिणी नदी के पूर्व में स्थित कोलवन प्रांत में, जहाँ से वे आए थे, जंगल साफ कर बसा दिया। कोलवन में बसे इन राज पुत्रों ने अपने पिता राजा राम के नाम पर यहाँ रामग्राम नगर की स्थापना की और कोलिय गणराज्य की नींव डाली। तथा ये कोलवन के कारण कोलिय कहलाये।

कोलिय गणराज्य की उत्तरी पहाड़ी सीमा से लगा हुआ पिप्पली वन था। कुछ कोलिय बाद में इस पिप्पली वन में जाकर बस गये। इस वन में मोरों की संख्या अधिक होने के कारण कोलिय लोग ही मौर्य कहलाए। इस तरह मौर्य अलग क्षत्रिय नहीं थे, कोलिय ही थे। 

अनेक पीढ़ियों के बाद लगभग आठ हजार वर्ष बीत जाने पर देवदह में महाराज अंजन हुए। जिन्होंने अंजन संवत् की स्थापना की। विशुद्ध क्षत्रिय रक्त को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कपिलवस्तु के शाक्यों तथा देवदह के कोलयों, जिन्हें शाक्य गणराज्य की सीमा में बसाये जाने से शाक्य भी कहा गया है, तथा रामग्राम के कोलियों के बीच आवाह-विवाह होता था, जो आज भी होता है। कोलय महाराजा अंजन तथा उनकी शाक्य महारानी से दण्डपाणी और सुप्रबुद्ध नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए तथा महामाया एवं महाप्रजापति नाम की देा पुत्रियाँ हुईं। महामाया तथा महा प्रजापति का विवाह कपिलवस्तु के शाक्य राजा शुद्धोधन से हुआ। शुद्धोदन एवं महामाया से सिद्धार्थ गौतम उत्पन्न हुए जो बाद में विश्व के प्रसिद्ध भगवान सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बने। महाराज अंजन के दूसरे पुत्र सुप्रबुद्ध से यशोधरा पुत्री एवं देवदत्त नाम के पुत्र का जन्म हुआ। 

यशोधरा का विवाह कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ गौतम बुद्ध से हुआ। (इस संबंध में देखिये प्राचीनतम इतिहास ग्रंथः (1) महावस्तु अवदान (2) एनसियंट हिस्ट्री ऑफ इंडिया (3) बौद्ध पालि संस्कृत ग्रंथ (4) ट्राइब्स इन एनसियंट इंडिया-डॉ0 विमल चुरान लॉ (5) जागे अन्तबोर्धि तथा (6) शाक्य और कोलिय गणतन्त्र का विनाश क्यों हुआ?-विपश्यना आचार्य सत्यनारायण जी गोयन्का, प्रकाशक विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी (महाराष्ट्र) (7) जनपद महाराज गंज के बौद्ध स्थल-डॉ0 पी. आर. गुप्ता तथा (8) कोलियगण-बी.एस.सहवाल, सम्यक् प्रकाशन, पश्चिम पुरी, दिल्ली-110063 तथा कोलिय कुल (कोली राजपूतों का इतिहास-डी. पी. डबराल, उत्तराखण्ड)

प्रश्न उठता है कि कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन तक इस देश के जम्बूद्वीप सूर्यवंशी क्षत्रियों का वर्चस्व किसी न किसी रूप में बना रहा किन्तु उसके बाद वृज्जि, लिच्छवी, शाक्य, कोलिय, मल्ल, बुल्लिय, भग्गीय, मौर्य, शेषनाग, जिसमें बुद्धकालीन मगध के सम्राट बिम्बिसार तथा अजातशत्रु हुए, मौर्य जिसमें सम्राट चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार तथा महान अशोक हुए, कौशल, चैतीय, कुरू पाँचाल विशुद्ध क्षत्रियों के केवल नाम ही शेष रह गए। ये क्षत्रिय या तो मिट गये या फिर अवान्तर रूप धारण कर गये अथवा श्रामणीक परम्परा से निकल कर कर्मकाण्डीय पौराणिक ब्राह्म्राणिक व्यवस्था में घुल-मिल गये। केवल विशुद्ध रूप से कोली क्षत्रिय जाति ने अपना वर्चस्व येन-केन आज तक बनाये रखा। 

वस्तुतः मगध के शासक पुष्यमित्र शुंग के बाद से लेकर गुप्त शासन काल तक यवन, कुशाण, शक, आभीर, हूण आदि विदेशी जातियों के लोगों ने भारतवर्ष पर आक्रमण किए और प्राचीन क्षत्रियों को पराजित कर अपने राज्य स्थापित कर लिए। जिन्हें कर्मकाण्डी ब्राह्मणों ने अबुर्द पर्वत के अग्नि कुण्ड में हवन कर शुद्ध किया और नये क्षत्रियों के रूप में मान्यता दे दी और इनकी जाति राजपूत निर्धारित कर दी। इन नये बनाए गए क्षत्रियों ने यहाँ संस्कृति को तथा जीवन शैली को अपना लिया और आज तक ये लोग भारतवर्ष में अपना वर्चस्व बनाए बैठे हैं। इन नये क्षत्रियों एवं कर्मकांडी ब्राह्मणों ने प्राचीन बुद्धकालीन विशुद्ध क्षत्रियों की उपेक्षा कर दी। प्राचीन विशुद्ध क्षत्रियों में केवल कोलिय लोग बचे जो दक्षिणी भारतवर्ष तथा उत्तरी भारतवर्ष एवं हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में फैल गये।

उत्तराखंड में कोली क्षत्रियः उत्तर में ये कोलिय क्षत्रिय लोग हिमालय की पहाड़ियों पर जा बसे कुछ कोलिय गणराज्य में (आज का महाराजगंज) में ही रह गये जो कि खेतिहर हैं तथा पट्टनवार एवं सैंथवार के नाम से जाने जाते हैं। इस जाति के कुछ लोग हिमालय के उस पहाड़ी क्षेत्र में भी बस गये। जो आज गढ़वाल के नाम से जाना जाता है। ये लोग पहाड़ियों पर अपने सीढ़ीनुमा खेत बनाकर धान की खेती कर अपना जीवन यापन करते हैं।

सन् 2000 के पूर्व उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश राज्य का भाग था। सन् 2000 में वह उत्तर प्रदेश से अलग होकर स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित हुआ। इस हिमालयी पर्वतीय राज्य में बद्रीनाथ (कोलीनाथ) से लेकर पौढ़ी गढ़वाल चमोली तथा कोटद्वार और टिहरी गढ़वाल तक की पहाड़ियों पर कोली जाति प्राचीन समय से ही मूलतः निवास करती आई है। इस जाति के लोग अपने को राजपूत कहते हैं और इसलिए इन लोगों ने राजपूत गढ़वाल सभा की स्थापना (रजि0) भी की हुई है, जिसकी कुछ शाखाएँ उत्तराखण्ड में विद्यमान हैं। यहाँ के कोलिय (कोली) प्राचीन विशुद्ध क्षत्रियों के ही वंशज हैं। इन्हें अपने विशुद्ध प्राचीन क्षत्रिय होने पर गर्व है। इन पर पौराणिक ब्राह्मणिक संस्कार हैं। ब्राह्मणिक लोग ही इनके विवाह आदि विभिन्न संस्कार सम्पन्न कराते हैं और इनसे समुचित दान-दक्षिणा प्राप्त करते हैं।